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आचार्य श्रीराम शर्मा >> सुनसान के सहचर

सुनसान के सहचर

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 15534
आईएसबीएन :0

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सुनसान के सहचर

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लदी हुई बकरी


छोटा-सा जानवर बकरी इस पर्वतीय प्रदेश की तरणतारिणी कामधेनु कही जा सकती है। वह दूध देती है, ऊन देती है, बच्चे देती है, साथ ही वजन भी ढोती है। आज बड़े-बड़े बालों वाली बकरियों का एक झुण्ड रास्ते में मिला, लगभग सौ- सवा सौ होंगी, सभी लदी हुई थीं। गुड़-चावल, आटा लादकर वे गंगोत्री की ओर ले जा रही थीं। हर एक पर उसके कद और बल के अनुसार दस-पन्द्रह सेर वजन लदा हुआ था। माल असबाव की ढुलाई के लिए खच्चरों के अतिरिक्त इधर बकरियाँ ही साधन हैं। पहाड़ों की छोटी-छोटी पगडंडियों पर दूसरे जानवर या वाहन काम तो नहीं कर सकते। 

सोचता हूँ कि जीवन की समस्याएँ हल करने के लिए बड़े-बड़े विशाल साधनों पर जोर देने की कोई इतनी बड़ी आवश्यकता नहीं है, जितनी समझी जाती है, जब कि व्यक्ति साधारण उपकरणों से अपने निर्वाह के साधन जुटाकर शान्तिपूर्वक रह सकता है। सीमित औद्योगीकरण की बात दूसरी है, पर यदि वे बढ़ते ही रहे तो बकरियों तथा उनके पालने वाले जैसे लाखों की रोजी-रोटी छीनकर चन्द उद्योगपतियों की कोठियों में जमा हो सकती है। संसार में जो युद्ध की घटाएँ आज उमड़ रही हैं, उसके मूल में भी इस उद्योग व्यवस्था के लिए मारकेट जुटाने, उपनिवेश बनाने की लालसा ही काम कर रही है। 

बकरियों की पंक्ति देखकर मेरे मन में यह भाव उत्पन्न हो रहा है। कि व्यक्ति यदि छोटी सीमा में रहकर जीवन विकास की व्यवस्था जुटाए तो इसी प्रकार शान्तिपूर्वक रह सकता है, जिस प्रकार यह बकरियों वाले भले और भोले पहाड़ी रहते हैं। प्राचीनकाल में धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना ही भारतीय समाज का आदर्श था। ऋषि-मुनि एक बहुत छोटी इकाई के रूप में आश्रमों और कुटियों में जीवन-यापन करते थे। ग्राम उससे कुछ बड़ी इकाई थे, सभी अपनी आवश्यकताएँ अपने क्षेत्र में, अपने समाज से पूरी करते थे और हिल-मिलकर सुखी जीवन बिताते थे, न इसमें भ्रष्टाचार की गुंजायश थी न बदमाशी की। आज उद्योगीकरण की घुड़दौड़ में छोटे गाँव उजड़ रहे हैं, बड़े शहर बस रहे हैं, गरीब पिस रहे हैं, अमीर पनप रहे हैं। विकराल राक्षस की तरह धड़धड़ाती हई मशीनें मनष्य के स्वास्थ्य को, स्नेह सम्बन्धों को, सदाचार को भी पीसे डाल रही हैं। इस यन्त्रवाद, उद्योगवाद, पूँजीवाद की नींव पर जो कुछ खड़ा किया जा रहा है, उसका नाम विकास रखा गया है, पर यह अन्तत: विनाशकारी ही सिद्ध होगा। 

विचार असम्बद्ध होते जा रहे हैं, छोटी बात मस्तिष्क में बड़ा रूप धारण कर रही है, इसलिए इन पंक्तियों को यहीं समाप्त करना उचित है, फिर भी बकरियाँ भुलाये नहीं भूलतीं। वे हमारे प्राचीन भारतीय समाज रचना की एक स्मृति को ताजा करती हैं, इस सभ्यता के युग में उन बेचारियों की उपयोगिता कौन मानेगा? पिछड़े युग की निशानी कहकर उनका उपहास ही होगा, पर सत्य-सत्य ही रहेगा, मानव जाति जब कभी शान्ति और संतोष के लक्ष्य पर पहुँचेगी, तब धन और सत्ता का विकेन्द्रीकरण अवश्य हो रहा होगा और लोग इसी तरह श्रम और सन्तोष से परिपूर्ण जीवन बिता रहे होंगे। जैसे बकरी वाले अपनी मैं-मैं करती हुई बकरियों के साथ जीवन बिताते हैं। 

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    अनुक्रम

  1. हमारा अज्ञात वास और तप साधना का उद्देश्य
  2. हिमालय में प्रवेश : सँकरी पगडण्डी
  3. चाँदी के पहाड़
  4. पीली मक्खियाँ
  5. ठण्डे पहाड़ के गर्म सोते
  6. आलू का भालू
  7. रोते पहाड़
  8. लदी हुई बकरी
  9. प्रकृति के रुद्राभिषेक
  10. मील का पत्थर
  11. अपने और पराये
  12. स्वल्प से सन्तोष
  13. गर्जन-तर्जन करती भेरों घाटी
  14. सीधे और टेढ़े पेड़
  15. पत्तीदार साग
  16. बादलों तक जा पहुँचे
  17. जंगली सेव
  18. सँभल कर चलने वाले खच्चर
  19. गोमुख के दर्शन
  20. तपोवन का मुख्य दर्शन
  21. सुनसान की झोपड़ी
  22. सुनसान के सहचर
  23. विश्व-समाज की सदस्यता
  24. लक्ष्य पूर्ति की प्रतीक्षा
  25. हमारी जीवन साधना के अन्तरंग पक्ष-पहलू
  26. हमारे दृश्य-जीवन की अदृश्य अनुभूतिया

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